11 May 2018

स्तब्ध!

निकलता है सुबह ख़ुशियाँ खरीदने,
और शाम तले खाली हाथ लौट आता है,
गहरी इन भाग्य की लकीरों को देख,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

नफे में नुकसान ढूँढता है और नुकसान में फायदा,
न जाने किसने कहा था
“जो होता है अच्छे के लिए होता है!”
नफे और नुकसान के चक्कर में,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

टिमटिमाते दीपक के अंधेरे में सपनों को संजोता है,
सोचता है की कल तो कुछ कर गुज़रूँगा,
सुबह पर उसे अपने ऋणों का खयाल आता है,
ऋण? कैसे ऋण? कुछ आर्थिक, कुछ नैतिक
किश्तों के इस झोल में,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

किसी ने क्या खूब कहा है की
“शामें कटती नहीं और साल बीते चले जा रहे हैं!”
जिंदगी जिस रफ्तार से निकल रही है ए वक़्त,
इंसान बस स्तब्ध ही रह जाता है ।