25 Nov 2016

Demons Inside!

They grab at me from within,
They laugh at my failures,
They belittle my success,
In success and in failure...
They are my demons!

They throw hurdles in my way,
They litter my path...
With stones and thorns,
They rip of my shoes,
Then they say please walk
In running and stumbling and falling...
They are my demons!

They give me day scares,
They give me nightmares,
In dreams and in wakefulness...
They are my demons

Its the same hell every day,
But different are my demons!
The demons inside of me!

13 Nov 2016

तुम्हारे अश्रुओं की इस धारा में!

तुम्हारे अश्रुओं की इस धारा में
मैं ओत प्रोत हो जाऊँ |

तुम्हारी उलझनों को सुलझाऊं पर
सबसे बड़ा प्रश्न मैं ही रह जाऊं |

तुम्हारी बाहों में लिपट जाऊं
भगदड़ सी इस जिंदगी में थोड़ा सुकून पाऊँ |

तुम्हारे काले इन केशों को
दूर से निहारूं |

तुम्हारी खुशी के इस क्षण में
मैं भी शरीक हो जाऊं |

तुम्हारे अश्रुओं की इस धारा में
मैं ओत प्रोत हो जाऊँ |

11 Nov 2016

पुष्प की अभिलाषा!


चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

– माखनलाल चतुर्वेदी

6 Nov 2016

क्या यह चरित्र उचित है?

आदमी...

आश्रय देने पर सिरपर चढ़ता है।
उपदेश देने पर मुड़कर बैठता है ।
आदर करने पर खुशामद समझता है।
उपकार करने पर अस्वीकार करता है।
विश्वास करने पर हानि पहुंचता है।
क्षमा करने पर दुर्बल समझता है।
प्यार करने पर आघात करता है।

क्या यह चरित्र उचित है ?

English Translation

Man...

Takes for granted the haven offered to him...
Shows his back to knowledge being given...
Considers respect as flattery...
Rejects the kindness shown to him...
Breaks the trust...
Considers forgiveness as weakness...
Hurts when he is loved...

Is this behaviour appropriate?

This content is not mine. Just liked it so sharing.

5 Nov 2016

दीप तुम जलते रहो!

दीप तुम जलते रहो,

अन्धियारे को खलते रहो |

हम तुम्हारी रोशनी को,

हर पल संजोएंगे |

जो बुझती होगी बाति,

हम फिर उसे सुलगाएँगे |

गर ना मिलेगा कुछ ईंधन,

हम खुद ईंधन बन जाएँगे |

औरों को ए दीप,

प्रकाश तुम देते रहो |

दीप तुम जलते रहो,

अन्धियारे को खलते रहो!

1 Nov 2016

पंख खोलूं और उड़ जाऊं!

एक पहाड़ पर चढ़ूँ और चिल्लाऊँ,
या चलूँ भीड़ मैं, एक गाना गुनगुनाऊँ।
अपनों से गुम हो जाऊं
अनजानों को दोस्त बनाऊं।

पंख खोलूं और उड़ जाऊं
नीले गगन को गले लगाऊं।

इक घूँट भर पानी पी लूँ,
या दरिया सा प्यासा रह जाऊं।
कम्बल ओड मैं सो जाऊं
कुछ सपने और मैं बुन लूँ।

पंख खोलूं और उड़ जाऊं
नीले गगन को गले लगाऊं।

कठिन पहेलियों को बूझूँ,
या उनमें उलझ कर रह जाऊं।
अपने आप में शरमाऊँ,
या आगे बढूँ और तुमको रिझाऊँ।

पंख खोलूं और उड़ जाऊं
नीले गगन को गले लगाऊं।

पराए!

हर दम हर पल
करूँ मैं उन्हें सुशोभित...
कंकड़, पत्थरों, काँटों से
करूँ मैं उनकी रक्षा...
कदम ताल में मैं करूँ
पग पग उनकी सेवा...
हर तरह के मल से
करूँ में उनकी सुरक्षा...

फिर भी पूजा के दिन क्यूँ में
रहूं घर के बाहर?
मंदिर के भीतर
क्यूँ ना करूँ में दर्शन?
कोमल तुम्हारे इन चरणों से
हर महत्वपुर्णा क्षण में क्यूँ रहूं मैं नदारद!
चरण ये तुम्हारे हैं अपने
और हम हो जाते हैं पराए!

पराए तुम्हारे जूते!