9 Dec 2018

एकाग्रचित्त

व्यथित हूँ कि मन एकाग्र नहीं,
दूरदर्शन बक्से से नज़र हटती नहीं,
टटोलती रहती हैं उंगलियां हमारी,
चतुर दूरभाष यंत्र को,
विश्वव्यापी जाले में,
हम उलझ गए,
जहरीले मिश्रण को अन्तरजाल के,
हम नाक बंद कर गटक गए!

व्यथित हूँ कि मन एकाग्र नहीं,
अगर घर में हूँ, तो मन दफ्तर में,
अगर दफ्तर में हूँ, तो मन घर में,
खरीदी करता हूँ, तो पैसा बचाने की सोचता हूँ,
और पैसे बचाता हूँ, तो सोचता हूँ खरीदी की,
सपने देखता हूँ, कुछ कर गुजरने के,
सजग हूँ, तो सपने देखता हूं बिस्तर के,
व्यावहारिक स्थितियों के लिए देता हूँ भावनात्मक प्रतिक्रियाएं,
और भावनात्मक परिस्थितियों में यंत्रमानववत् प्रतिक्रियाएं!

व्यथित हूँ कि मन एकाग्र नहीं।।

शब्दकोश
    1. दूरदर्शन बक्सा - Television
    2. चतुर दूरभाष यंत्र - Smart phone
    3. विश्वव्यापी जाला - World Wide Web
    4. अन्तरजाल - Internet
    5. यंत्रमानववत् - Robotic
    6. भावनात्मक - Emotional
    7. व्यावहारिक - Practical

18 Sept 2018

तो क्या बात होती।

खाली दीवारों से अगर घर बन जाता!
तो क्या बात होती।
इमारतों से अगर होती बस्ती!
तो क्या बात होती।
शून्य से नहीं सीधे सौ से शुरुआत होती!
तो क्या बात होती।

भुतहा हवेलियों मेंं अगर रात बेबाक होती!
तो क्या बात होती।
पतझड़ में भी अगर होती बहार!
तो क्या बात होती।
हाथ की लकीरों में गर किस्मत होती!
तो क्या बात होती।

अमावस भी पूर्णिमा सी रोशन होती
तो क्या बात होती।
झोपड़ी भी महल सी होती आलीशान,
तो क्या बात होती।
काम नहीं करना पड़ता पर तनख्वाह हाथ होती
तो क्या बात होती।

खुद से भी कभी अगर मुलाकात होती,
तो क्या बात होती।
आईने में अगर दिख जाती रूह,
तो क्या बात होती।
कुछ लिखना नहीं पड़ता फिर भी कविता कृत होती,
तो क्या बात होती।

17 Aug 2018

गुरुदेव तुम्हें नमन।

तुम्हारी 51 कविताएं
सीने में मेरे रहेगी हमेशा,
और
तुम्हारे स्वरों की गूंज
मेरे कानों में।
तुम्हारे शब्दों ने झकझोरा मुझे,
मेरे कवि को उसने जगाया।

तुम्हारे आदर में सर हमेशा झुकेगा,
और जब जब सर झुकाऊंगा,
करूँगा गुरुदेव तुम्हें नमन,
और काल के कपाल पर
मैं भी लिखूंगा मिटाऊंगा
गीत नया गाऊंगा।

मेरे अंदर के कवि के गुरु श्री अटल बिहारी वाजपेयी को समर्पित ।

11 May 2018

स्तब्ध!

निकलता है सुबह ख़ुशियाँ खरीदने,
और शाम तले खाली हाथ लौट आता है,
गहरी इन भाग्य की लकीरों को देख,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

नफे में नुकसान ढूँढता है और नुकसान में फायदा,
न जाने किसने कहा था
“जो होता है अच्छे के लिए होता है!”
नफे और नुकसान के चक्कर में,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

टिमटिमाते दीपक के अंधेरे में सपनों को संजोता है,
सोचता है की कल तो कुछ कर गुज़रूँगा,
सुबह पर उसे अपने ऋणों का खयाल आता है,
ऋण? कैसे ऋण? कुछ आर्थिक, कुछ नैतिक
किश्तों के इस झोल में,
इंसान सिर्फ स्तब्ध रह जाता है।

किसी ने क्या खूब कहा है की
“शामें कटती नहीं और साल बीते चले जा रहे हैं!”
जिंदगी जिस रफ्तार से निकल रही है ए वक़्त,
इंसान बस स्तब्ध ही रह जाता है ।

15 Jan 2018

फॉरगॉटन फ्रेंड्स

बहुत समय हो गया कलम उठाये हुए,
शब्दों की बारीकियों को देखे हुए एक अर्सा हो गया,
शायद कभी स्पर्श किये थे असमतल मृदु ये कागज़ रूखे,
न जाने मेरा दवात का डब्बा कहाँ खो गया।

कोरे कागज़ों पर न जाने कब अल्फ़ाज़ उकेरे थे,
ख़यालों को अपने न जाने कब था खुल के कहा,
बहुत समय हो गया कलम उठाये हुए,
शब्दों की बारीकियों को देखे हुए एक अर्सा हो गया।