18 Sept 2018

तो क्या बात होती।

खाली दीवारों से अगर घर बन जाता!
तो क्या बात होती।
इमारतों से अगर होती बस्ती!
तो क्या बात होती।
शून्य से नहीं सीधे सौ से शुरुआत होती!
तो क्या बात होती।

भुतहा हवेलियों मेंं अगर रात बेबाक होती!
तो क्या बात होती।
पतझड़ में भी अगर होती बहार!
तो क्या बात होती।
हाथ की लकीरों में गर किस्मत होती!
तो क्या बात होती।

अमावस भी पूर्णिमा सी रोशन होती
तो क्या बात होती।
झोपड़ी भी महल सी होती आलीशान,
तो क्या बात होती।
काम नहीं करना पड़ता पर तनख्वाह हाथ होती
तो क्या बात होती।

खुद से भी कभी अगर मुलाकात होती,
तो क्या बात होती।
आईने में अगर दिख जाती रूह,
तो क्या बात होती।
कुछ लिखना नहीं पड़ता फिर भी कविता कृत होती,
तो क्या बात होती।

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