दिसम्बर की इक सर्द सुबह
घर से बाहर जब मैं निकला
तो खुद को
घनी धुंध से घिरा पाया |
उस घनी धुंध को देख
एक विचित्र सवाल मेरे मन में आया
की
सूरज के बढ़ने के साथ घुल जायेगी धुंध
परन्तु
कब निकलेगा सूरज मन का
कब मिटेगी अहंकार की धुंध
कब मिटेगी मेरे मन से कनक की ये माया
क्या कभी सुनूंगा निर्मल मन से
कृष्ण की अमृत वाणी
सुना भी अगर कभी कृष्ण को
तो
क्या कभी करूँगा, सुना था जो मन ने मेरे
इसके साथ ही सैर का समय हो गया था अंत |
परन्तु अगली सुबह
घर से बाहर जब मैं निकला
तो अपने को
फिर उसी धुंध में घिरा पाया |
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