21 Jun 2010

धुंध

दिसम्बर की इक सर्द सुबह 
घर से बाहर जब मैं निकला
तो खुद को 
घनी धुंध से घिरा पाया |

उस घनी धुंध को देख
एक विचित्र सवाल मेरे मन में आया 
की
सूरज के बढ़ने के साथ घुल जायेगी धुंध
परन्तु 
कब निकलेगा सूरज मन का 
कब मिटेगी अहंकार की धुंध
कब मिटेगी मेरे मन से कनक की ये माया 
क्या कभी सुनूंगा निर्मल मन से 
कृष्ण की अमृत वाणी 
सुना भी अगर कभी कृष्ण को
तो 
क्या कभी करूँगा, सुना था जो मन ने मेरे 
इसके साथ ही सैर का समय हो गया था अंत  |

परन्तु अगली सुबह 
घर से बाहर जब मैं निकला 
तो अपने को
फिर उसी धुंध में घिरा पाया |

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